कोर्ट ने कहा कि न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत को याद रखने जरूरत है कि बेल (जमानत) नियम होना चाहिए और जेल अपवाद।
इस न्यायिक परंपरा का सम्मान नहीं किया गया। इसके उलट सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तक में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और राजद्रोह जैसी गंभीर धाराएं लगा दी गई।
राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल असंतोष को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता।
कानून का शासन इस बात की इजाजत नहीं देता कि आरोप लाने भर से किसी व्यक्ति को जेल भुगतनी पड़ जाए।
संकेत मिल रहे हैं कि सरकारों की इच्छा या मौन समर्थन से ही पुलिस अपने दायरे का विस्तार कर रही है।
सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और प्रशासन को उसकी हद याद दिलाने की कोशिश की है।
18 फ़रवरी, 2021। नवभारत टाइम्स अपने संपादकीय में लिखता है, सुप्रीम कोर्ट की ओर से किया गया यह सवाल सभी संबंधित पक्षों के लिए गौर करने लायक है कि आजकल हर किसी के अंदर हर किसी को जेल में डालने की प्रवृत्ति क्यों मजबूत होती जा रही है?
कोर्ट के ध्यान में पिछले कुछ समय में आए ऐसे कई मामले में जिनमें अभियोजन पक्ष बिना किसी ठोस आधार या जरूरत के आरोपी को न्यायिक हिरासत में भेजने या जमानत रद करने पर जोर दे रहा था।
कोर्ट ने कहा कि न्यायशास्त्र के इस सिद्धांत को याद रखने जरूरत है कि बेल (जमानत) नियम होना चाहिए और जेल अपवाद। इसी संदर्भ में दिल्ली की एक अदालत को यह टिप्पणी भी ध्यान देने लायक है कि राजद्रोह के कानून का इस्तेमाल असंतोष को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता।
पिछले कुछ समय से राजद्रोह के मुकदमे दर्ज करने में असाधारण तेजी देखी जा रही है। युवा सामाजिक कार्यकर्ताओं का मामला तो है ही, कांग्रेस नेता शशि थरूर और छह जाने-माने पत्रकारों के खिलाफ दर्ज हुए मामले भी पुराने नहीं पड़े हैं। कॉमेडियन मुनचर फारुकी समेत ऐसे तमाम मामले भी याद किए जा सकते हैं जिनमें छोटी- छोटी बातों पर लोगों को गिरफ्तार करने, अनाप-शनाप धाराएं लगाने और जल्दी जमानत न मिलने देने को पुलिसिया प्रवृति रेखांकित होती है।
कानून का शासन इस बात की इजाजत नहीं देता कि आरोप लाने भर से किसी व्यक्ति को जेल भुगतनी पड़ जाए।
सिद्धांत रूप में स्थिति एकदम स्पष्ट है कि जघन्य अपराधों के अलावा शेष सभी मामलों में आरोपी को जेल में रखने की जरूरत तभी होनी चाहिए जब वह जांच में सहयोग न करे, उसके देश से बाहर भाग जाने का खतरा हो, या बाहर रहने पर उसके द्वारा सबूत मिटाए जाने का डर हो।
हाल के दिनों में ऐसे अनेक मामले देखने को मिले हैं जिनमें बेल को नियम और जेल को अपवाद मानने वाली इस न्यायिक परंपरा का सम्मान नहीं किया गया। इसके उलट सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तक में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून और राजद्रोह जैसी गंभीर धाराएं लगा दी गई।
समझना जरूरी है कि जमानत पर जोर देने वाले जुडिशयल नॉर्म्स लोक के लिए अक्सिजन की भूमिका निभाते हैं।
इनके उल्लंघन को हल्के में लेने पर सख्त कानूनों का इस्तेमाल पुलिस-प्रशासन की मनमानी का सबब बन जाता है और अंततः ये राजनीतिक विरोधियों को सबक सिखाने के औजार बन जाते हैं।
कायदे से देखा जाए तो राज्य मशीनरी के इस अति उत्साह पर रोक लगाने की जिम्मेदारी सरकार को बनती है।
लेकिन इस दिशा में कुछ करना तो दूर उलटे संकेत मिल रहे हैं कि सरकारों की इच्छा या मौन समर्थन से ही पुलिस अपने दायरे का विस्तार कर रही है।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस और प्रशासन को उसकी हद याद दिलाने की कोशिश की है। उम्मीद की जाए कि कम से कम अदालत के इस हस्तक्षेप बाद सभी संबंधित पक्ष अपनी-अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करेंगे और उसे दुरुस्त करने में कोई हीलाहवाली नहीं दिखाएंगे।
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