संयुक्त किसान मोर्चे ने एक पत्रकार वार्ता करके 26 जनवरी पर आयोजित किसान परेड के विषय में कहा कि सरकार ने पहले से तयशुदा रूप पर किसानों को जाने नहीं दिया और जो रूट खोला वह अनियंत्रित किसानों को अपने आप लाल किला की ओर ले जाया गया, कारण था कि किसी भी तरह किसान आंदोलन को बदनाम करना।

क्या किसान देश के नागरिक नहीं हैं? क्या किसान अपना भला – बुरा समझने के लायक नहीं हैं? क्या किसान खालिस्तानी या आतंकवादी हैं? क्या 130 से अधिक किसानों की मौत के बाद भी सरकार को किसानों के मांग नहीं मान लेनी चाहिए? कृषि कानूनों को वापस लेने से सरकार को क्या नुकसान है? क्या सरकार ने पूंजीपतियों से या विदेशी कम्पनियों से इन कानूनों को लागू करवाने के लिए अरबों रुपए वसूल किए हैं? अगर ऐसा नहीं तो फिर कानून वापस लेने में इतनी देरी का क्या कारण है?
सरकार कृषि कानूनों को वापस नहीं लेना चाहती और किसानों से वार्ता भी नहीं करना चाहती थी इसलिए अब किसी तरह किसान मोर्चे की शांति भंग करनी थी और किसान आंदोलन को बदनाम करना था ताकि शांतिप्रिय किसान स्वयं को इस आंदोलन से अलग कर लें।
जनांदोलन को दबाने का हथियार जो अभी तक सरकार को नहीं मिल पा रहा था, सरकार इस साजिश के बहाने किसानों को अराजक तत्व सिद्ध करने में सफल हो गई।
सरकार ने अब किसानों की एकजुटता को तोड़ने के लिए साम दाम दंड भेद की नीति अपनानी आरम्भ कर दी है।
सबसे पहले कुछ लोकल के नाम पर अराजक तत्वों को नियोजित ढंग से किसानों को भड़काने और मारपीट करने के लिए उकसाने का काम किया गया, जिसका परिणाम यह हुआ कि आत्मसम्मान के लिए मर मिटने वाले खालसा, अपमानजनक गालियां सुनकर अपने क्रोध पर काबू न रख सके और फिर जैसे ही सरदार बाहर निकला, पुलिस ने उसे दबोच लिया और बुरी तरह से पीटा और बूटों से रौंदा गया।
फिर उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों को गिरफ्तार करने की योजना बनाई, परंतु राकेश टिकैत की भावुक अपील पर किसानों ने फिर से आंदोलन को जिंदा कर दिया।
अब किसानों ने भारत बन्द की घोषणा की है, जिसे रोकने के लिए सरकार कंटीले तार से लेकर, कील बिछाने तक का काम कर रही है जिसकी पूरे विश्व में निंदा हो रही है, क्योंकी ऐसा विश्व के इतिहास में किसी भी लोकतांत्रिक देश में आज तक में नहीं किया है।
किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा 15 दिन से कुछ लोगों को तैयार किया गया कि आपको
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